रविवार, 17 जुलाई 2016

सच्ची कविता

होती ही नहीं, हो ही नहीं सकती;
कोई कविता सच्ची, आपने सोचा कभी?
मुझे भी लगा, बड़ी जोर से यही झटका,
जब मैं ढूंढ रहा था, अच्छाई कविता में;
झूठ नहीं थी ज़रा भी,
पर नहीं मिली सच्चाई कविता में।।

वहां कल्पना मिली, बस कोरी कल्पना;
सुन्दर लिबास में, प्यारे अहसास में,
तृप्ति और प्यास में, अंदाज़े खास में,
जैसे,
बहुत दूर थे जो, लिखना चाहा उन्हें पास में;
पर हमजोली को देखा, चाँद बने, आकाश में।।

अब सवाल ये है, प्रेरणा बड़ी या कल्पना,
दिल अज़ीज़ को हमेशा सबसे अच्छा माना,
खूबियों को उसकी, अपरिमित ही जाना,
सच को नकारा, पर कल्पित को पहचाना,
क्योंकि,
प्रेरणा जब तक न बिशरे, शब्द में जान होती है,
कल्पना के छीटों से भी, सच की शान होती है,
इसीलिए, कविता हमेशा कवि से जवान होती है।।

सच नहीं हो सकता, इतना आकर्षक;
वो तो अक्सर खुश्क सा होता है,
चुभता है दर्शक नैनों में,
पहले सफ़ेद बाल की तरह,
हटता ही नहीं आगे से,
उस 'बिछड़े' नाम की तरह।
इसीलिए,
सच मुश्किल हो जब,
कविता बदल लेती है अपना पथ,
हमेशा सोचे-समझे अंजाम की तरह।।

कवि से हमेशा एक कदम आगे रहती है,
दास्ताँ-ऐ-दिल पे भारी, हर शब्द सहती है,
बहुत मुखर हो कर भी, कुछ नहीं कहती है,
अम्बर भर समेट कर भी, बाँझ ही रहती है,
'मुसाफ़िर' का हाल, कलम कैसे समेटे भला,
शायद भावगंगा उसकी बहुत गहरे बहती है।।

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लेखनी - अजय चहल 'मुसाफ़िर'
17 जुलाई, 2016
चेन्नई, भारत

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