मंगलवार, 30 जुलाई 2019

बाँझ

डॉक्टरी की पोस्ट-ग्रेजुएशन की पढ़ाई के दौरान दो सहपाठियों में प्रेम का प्रवाह आरंभ होता है। दोनों मुम्बई के संभ्रांत परिवारों से हैं। दोनों की उम्र 35 साल के आस पास है। सुंदर सहकर्मी को प्यार का प्रस्ताव देते हुए निर्मल को ये नहीं पता होता कि स्नेहा माँ नहीं बन सकती। हालांकि स्नेहा को अपनी ग्रेजुएशन के दौरान से ही अपने बाँझ गर्भाशय के बारे में पता होता है, जिस कारण उसने कभी शादी नहीं करने का मन बना लिया था। पर इतने अच्छे सहकर्मी के प्यार में वो पिघल जाती है और उसके प्रणय निवेदन को स्वीकार कर लेती है। 

गहरे प्यार में डूबे निर्मल को वो एक दिन अपने बांझपन का राज भी बता देती है। जैसे प्यार के सामने हर तर्क और दीवार बौने होते हैं, यहां भी ये प्रेमी जोड़ा एक दूसरे को बिना किसी शर्त के अपना लेता है। इसी दौरान उनकी शादी भी हो जाती है, पर बिना कोई भेद खोले।

कुछ वक़्त के सुकून के बाद, ससुराल वाले अपना वंश आगे बढ़ाने के लिए डॉक्टर स्नेहा को मानसिक रूप से परेशान करने लगते हैं। निर्मल के घर वालों के तानों से तंग आकर वो दोनों एक विस्तृत प्लान बनाते हैं।

ये विचार उन्हें अपनी पढ़ाई के दौरान एक आदिवासी इलाके के दौरे के दौरान आता है, जहाँ पर बहुत सारी महिलाएं कोयले की खान में काम करने की वजह से गर्भाशय के कैंसर से पीड़ित होती हैं। इसी दौरान उनकी पढ़ाई पूरी हो जाती है और सरकारी नियमों के तहत डॉक्टर निर्मल आदिवासी इलाके में अनिवार्य 2 साल की सर्विस के लिए राज़ी हो जाता है, तो वहीं डॉक्टर स्नेहा 10 लाख रुपये का जुर्माना देकर खुद को मुम्बई के एक बड़े हॉस्पिटल में पोस्ट करवा लेती है। यहीं से शुरू होता है 'महिला स्पेशलिस्ट सर्जन' डॉक्टर निर्मल और 'कैंसर एक्सपर्ट' डॉक्टर स्नेहा का कुचक्र।

एक दिन प्रारम्भिक जांच में एक आदिवासी परिवार की सभी महिलाओं को गर्भाशय के कैंसर की पुष्टि होती है, सिर्फ उनकी एक बिन ब्याही बेटी को छोड़ कर। पर डॉक्टर निर्मल उसको भी कैंसर की आशंका बता कर, जांच के नाम पर, मुम्बई भेजने की बात कहता है और वो भी पूर्णतः निःशुल्क। परिवार डॉक्टर के नेक दिल की प्रशंसा करता है और खुद डॉक्टर के साथ वो लड़की और उसका पिता मुम्बई में एक महिला कैंसर एक्सपर्ट से मिलते हैं।

वहां उस लड़की की गहन चिकित्सीय जांच होती है और दुर्भाग्य से उसे भी कैंसर होने की पुष्टि हो जाती है। अतएव ऑपरेशन से उसके गर्भाशय को निकाल दिया जाता है। अपनी बेटी की जान बचाने के लिए असहाय पिता डॉक्टर निर्मल का बहुत अहसान मानता है। आज के जमाने में कहाँ भला इतने नेकदिल डॉक्टर मिलते हैं? पिता-पुत्री कुछ दिन बाद गांव लौट जाते हैं और डॉक्टर निर्मल के गुणगान करते नहीं थकते।

शायद भगवान भी उन गरीबों की दुआओं से पिघल गया, क्यूँकि तभी तो इसके ठीक 2 महीने बाद, अब तक बाँझ, डॉक्टर स्नेहा भी गर्भवती हो जाती है।

इस इलाज़ के चमत्कार से डॉक्टर दम्पति के संभ्रांत जानकार और संबंधी अपने बांझपन के इलाज के लिए उनसे संपर्क करना शुरू कर देते हैं। पहला सफल इलाज़ होता है डॉक्टर स्नेहा की एक सहकर्मी डॉक्टर सपना का, जो इत्तेफ़ाक़ से, एक दिन उस आदिवासी लड़की की मेडिकल टेस्ट रिपोर्ट देख लेती है।

इसी बीच डॉक्टर निर्मल के तबादले के आदेश आ जाते हैं। उसे एक महीने बाद मुम्बई के एक हॉस्पिटल में जॉइन करना है। पर प्रारंभिक दबाव से और फिर पैसे के लालच से, ये डॉक्टर दम्पति जाने कितने गरीब घरों के चिरागों को जलने से पहले ही बुझाने की साज़िश कर लेते हैं।

पहले तो वे आदिवासी इलाके की महिलाओं को गर्भाशय के कैंसर का झूठा डर दिखा कर उनका स्वस्थ गर्भाशय निकाल लेते हैं और फिर उसे संतान सुख की चाहत वालों को ट्रांसप्लांट कर देते  हैं। आदिवासी इलाके में पदस्थ डॉक्टर निर्मल की मदद से महानगर में पदस्थ डॉक्टर स्नेहा अब अपनी जानकार संभ्रांत और बाँझ महिलाओं के लिए गर्भाशय ट्रांसप्लांट का अवैध धंधा चालू कर देती है।

एक हफ्ते में ही 50 गर्भाशय बिना पूरी जांच के निकाल दिए जाते हैं, क्योंकि तबादले का समय पास आ रहा है। वो मसीहा बना डॉक्टर अब गांव गांव घूम कर, अनेकों स्वस्थ महिलाओं को भी रोगी बता कर उनका ऑपेरशन बिना जांच के भी करने लगा और मात्र 3 हफ़्तों में ही 300 महिलाओं के आपरेशन गांव-गांव में कैम्प लगा कर कर दिए। गरीबों की इतनी अथक सेवा के लिए सरकार ने उसे एक राजकीय सम्मान के लिए नामांकित कर दिया। 

पर आवेदन के वक़्त जमा किये गए दस्तावेजों की जांच करते हुए एक स्पेशलिस्ट महिला सर्जन को कुछ गड़बड़ का आभास हुआ। जब वो जांच गहराई में पहुँची, तो पता चला 70 किशोरियों के गर्भाशयों का ऑपेरशन एक ही महिला डॉक्टर की रिपोर्ट के बाद हुआ। नियम अनुसार नाबालिक लड़कियों के गर्भाशय को निकालने से पहले कम से कम दो डॉक्टर से जाँच करवानी अनिवार्य होती है, पर इन सभी 70 केसों में नियम के 'इमरजेंसी क्लॉज़' का सहारा ले कर त्वरित ऑपरेशन किये गए थे।

इसी दौरान किसी नेचुरल मेडिकल तकलीफ के कारण इस कुचक्र में सबसे पहले लाभान्वित होने वाली उस सहकर्मी महिला डॉक्टर सपना की प्रेगनेंसी के दौरान मौत हो जाती है और पोस्टमार्टम में सबको उसके गर्भाशय प्रत्यारोपण का पता चलता है, जो उसने शायद 15 दिन की बीमारी की छुटियों के दौरान एक जानकार प्राइवेट हॉस्पिटल में उसी परोपकारी डॉक्टर निर्मल को ब्लैकमेल कर करवाया था।

पर ये भी आश्चर्य जनक था, कि उसका प्रत्यारोपित गर्भाशय भी कैंसर ग्रस्त पाया जाता है। जांच में पाया गया कि डॉक्टर स्नेहा ने उसकी रिपोर्ट में भी गड़बड़ कर दी थी और इस तरह, उसके ब्लैकमेल का जानलेवा जवाब दिया था।

जाँच का दायरा अब दोनों पति पत्नी को लपेटे में ले लेता है। विजिलेंस विभाग की अब तक चल रही जाँच प्रक्रिया से ये डॉक्टर दम्पति पूर्णत अनभिज्ञ था। फिर एक दिन, ये दयालु डॉक्टर स्नेहा एक बेटी को जन्म देती है, पर उधर उसी दिन, उस आदिवासी लड़की की शादी टूट जाती है, जिसके प्रत्यारोपित गर्भ से वो माँ बनी है। और यहाँ बेटी का नाम 'सौभाग्यवती' रखा जाता है।

अगले दिन अवार्ड फंक्शन में पहुँचते ही विजिलेंस टीम द्वारा डॉक्टर निर्मल को गिरफ्तार कर लिया जाता है। 'सौभाग्यवती' के नेक माता-पिता को 20 वर्ष के सश्रम कारावास की सजा सुनाई जाती है। कुछ महीनों पश्चात उन सभी संभ्रांत महिलाओं में से, जो पहले बांझ थी, 20 महिलायें बेटियों को ही जन्म देती हैं। पर उधर इस दयालु धोखे से पीड़ित 10 किशोर जिंदगियाँ बांझ के कलंक, अपने शरीरों, को फंदे पर लटका देती हैं।

इस किस्से के 18 साल बाद पता चलता है कि जेल में बंद डॉक्टर निर्मल और स्नेहा की बेटी 'सौभाग्यावती' को भी एक स्पेशलिस्ट डॉक्टर द्वारा बांझ घोषित कर दिया जाता है।
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लेखनी:
अजय चहल 'मुसाफ़िर'
चेन्नई, भारत

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