मंगलवार, 2 अगस्त 2016

अनजाना

जब हुआ था, आँखों से ओझल वो,
तो कहा बहुत बार मुझसे, इन नैनों की नमीं ने,
पर दिल ने उसे कभी बेवफ़ा न माना।
पर अब, जब से उसकी नज़र पड़ी है इधर,
जानें क्यूँ लगे है,
उसका अक्श भी और आभास भी,
उसकी बेरुखी-सा ही अनजाना।।

शायद वक़्त का तकाज़ा है,
या यूँ कहूँ कि वो माहिर थे,
दिल का हाल छुपाने में,
जाने खोट रहा हमारी समझ में,
या भूल हुई उनसे, बताने में,
कहीं अधूरा रह गया, उनका परिचय हमसे,
जानकर या अनजाने में,
इसीलिए आज, हमसे ना गया वो पहचाना,
और उसका अक्श भी और आभास भी,
लगे है उसकी बेरुखी-सा ही अनजाना।।

मैं तो साफ़ दिल था,
उनका ख्याल आया, सो उन्हें कह दिया,
फैसला ये उनका था,
जो हमें अपना कह पुकारा,
इस दिल ने उनके शब्दों को सच ही माना,
होश गवां बैठे हम, भूल गए थे सारा जमाना,
बस चंद लफ़्ज क्या लिखे 'मुसाफ़िर',
लोग कहने लगे हैं तुझे दीवाना,
बड़ा मुश्किल रहा इस जिगर पे,
उनका आना और आकर यूँ चले जाना,
शायद इसीलिये,
था जो शख्स बड़ा जाना-पहचाना,
अब उसी का अक्श भी और आभास भी,
लगे है उसकी बेरुखी-सा ही अनजाना।।

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लेखनी - अजय चहल 'मुसाफ़िर'
2 अगस्त, 2016
चेन्नई, भारत

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