शुक्रवार, 17 जून 2016

कहूँ या ना कहूँ


ये उस गुजरे दौर की कहानी है,
जब ख़्वाब और उलझन का जोर था,
और हम इक मूर्त के दीवाने थे।

पर अब बदले दौर में, ये कहानी,
कुछ कहनी है, कुछ छुपानी है।

दिल तो चिल्लाता है, खोल दे हर पन्नें का राज,
पर मेरे बंधन फुसफुसाते हैं, कहूँ या ना कहूँ।।

उस सफ़र की दास्ताँ है,
जो इक हमसफ़र की बदौलत थी।
लाली बन गयी है अब, इक मांग की,
उसकी मोहब्बत की जो दौलत थी।

बैठ कर सोच भी लेता 'मुसाफ़िर',
पर मौका ना मिला, हाँफती राहों में,
अब जब धुंधला सा नज़र में है वो,
तो सम्भली हुई धड़कनें मुश्किल में हैं,
कुछ कहूँ या ना कहूँ।।

ऐसा नहीं है, कि ओझल था वो,
बस ज़रा नज़र में ना था।
खुली आखों से बेशक नदारद था,
पर बंद पलकों में वक़्त-बेवक़्त,
उसकी खुशनुमा यादें, अक्सर .....बस।
सोचता हूँ, ये सब कहूँ या ना कहूँ।।

चलो छोड़ो, ..
इस राज को राज ही रहने देते है,
और चुप रहकर, खुद ही को सब कह लेते हैं।

मेरा मर्म कहता है कि,
ये दास्ताँ एक-तरफ़ा तो ना होगी,
अब उनको भी तो कुछ कह लेने देते हैं।

पर क्या पता, मेरे जैसे ही बंधन,
उनकी जुबाँ पर भी होंगे...या ना होंगे?
तब तो शायद,
अनकही ही रहेगी ये दास्ताँ,
गर वो भी हमें याद कर के,
लंबी सांस संग, आहें ले कहेंगे,
कि कुछ कहूँ या ना कहूँ।।
.....
ओ...हो.......
कुछ कहूँ या न कहूँ।।
......
दिल परेशान मेरा, पूछे कब तक चुप रहूँ।।
............
--
लेखनी - अजय चहल 'मुसाफ़िर'
चेन्नई, भारत



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