गुरुवार, 13 जुलाई 2017

तितलियाँ

बहुत भीड़ थी, आज रस्ते में,
ऐसा नज़ारा, ना मिले जो, सस्ते में ।
इधर भी थी दौड़ लगी, उधर भी थी होड़ लगी,
बस हर तरफ थी,
चहकती तितलियाँ, महकती तितलियाँ ।।

गिन ना सको, इतने थे रंग,
सबकी अलग रफ़्तार और उड़ने के ढंग ।
जमीं चिपकी थी मेरे पैरों से,
पर मन उड़ रहा था उनके संग ।
उनकी अठखेलियाँ, कभी अकेले या संग सहेलियाँ,
इस पेड़ से उस पेड़ पर, इस फूल से उस फूल पर,
मानों रूकना भूल गयी थी, आज ये तितलियाँ ।।

लाल, गुलाबी, पीले और नीले, पुष्प थे इंतज़ार में,
किसकी पीढ़ी आगे बढ़ेगी,
या होगा वो आख़िरी, इस संसार में ।
मसला जितना गंभीर था, नहीं गंभीर थी तितलियाँ,
देखा उन फूलों को, सुकून में, छू गयी थी जिन्हें, जूनून में,
वो बेचैन तितलियाँ ।।

कुछ रंगीन पंख, बिखरे थे जमीं पर,
ज़माने की रफ़्तार की, या कहो, मोटरकार की,
बन गई थी शिकार, सुबह सवेरे, कुछ तितलियाँ ।।

कुछ ज्यादा ही महंगे थे, शायद ये रंगीन नज़ारे,
पहिये लगे हैं, जिन पैरों में, कैसे ठहरें, वो बेचारे,
इक रोज़ का सुकून कमाने, हफ़्ते लदे हैं कंधों पे हमारे,
दिन, महीने, साल तो छोड़ो, इसी उलझन में हैं, जीवन गुजारे,
पर क्या,
एक जोड़ी फड़फड़ाते, ये रेश्मी पंख, गम सोख सकते हैं सारे?
लो आ बैठी हैं, फिर से, मेरी हथेली पर, दो और तितलियाँ,
हर ओर हैं ये तितलियाँ, रहें मेरी ओर ये तितलियाँ,
रहें तेरी ओर भी ये तितलियाँ...तितलियाँ...तितलियाँ..

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Experience derived from a 'not-so-brisk' morning walk inside The Beautiful IIT Madras campus. 
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Listen it here:
https://soundcloud.com/ajay-chahal/titliyaan
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 इसे उर्दू में यहाँ पढ़ें:
https://musaafiraana.blogspot.in/2017/08/titliyaan.html
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लेखनी:
अजय चहल 'मुसाफिर'
मद्रास, भारत ।

 







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