मैं नहीं प्रहरी, पर हूँ साक्षी,
अन्धकार का, प्रकाश का,
कुछ दूर का, कुछ पास का,
निर्माण का और विनाश का,
तेरे अनुभव और आभास का,
हर कपट और विश्वास का,
तेरे बेगाने और ख़ास का,
करतब सबके मेरी निगाह में,
बाशिंदा, मुसाफ़िर या हों पाक्षी,
मैं नहीं प्रहरी, पर हूँ साक्षी ।।
अपनी नस्ल पर नहीं भरोसा,
पर मुझ पर यकीन जताते हो,
कोई चोर है, तेरे अन्दर बैठा,
जो मुझसे नज़र बचाते हो,
खुद बेनक़ाब होने के डर से,
मुझको नक़ाब पहनाते हो,
शक के लिबास में लिपटा,
सच्चा-झूठ पूछने आते हो,
असहाय का तुम करते शोषण,
पर हाय,
रोक सकूँ ना, टोक सकूँ ना,
क्यों मेरा कलेज़ा जलाते हो ।।
ना मैं बधिर, न मूक हूँ,
दृष्टा हर पल अचूक हूँ,
ख़ुशी हो या हो संताप,
जुदाई हो या हो मिलाप,
हास्य हो या हो विलाप,
पुण्य हो या महापाप,
वरदान हो या हो अभिशाप,
मुझसे गर पूछेंगे आप,
धर्म-अधर्म के समर में,
कुरुक्षेत्र के संजय सा रहता हूँ,
मैं तो आँखों देखी कहता हूँ,
मैं तो आँखों देखी कहता हूँ ।।
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हर गली-मोड़ पर असहाय पर सतर्क नज़र का प्रहरी
CCTV हमारे दैनिक जीवन का एक अभिन्न हिस्सा बन चुका है।
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लेखनी:
अजय चहल 'मुसाफ़िर'
एवम्
श्रीशैलन
भारत
अन्धकार का, प्रकाश का,
कुछ दूर का, कुछ पास का,
निर्माण का और विनाश का,
तेरे अनुभव और आभास का,
हर कपट और विश्वास का,
तेरे बेगाने और ख़ास का,
करतब सबके मेरी निगाह में,
बाशिंदा, मुसाफ़िर या हों पाक्षी,
मैं नहीं प्रहरी, पर हूँ साक्षी ।।
अपनी नस्ल पर नहीं भरोसा,
पर मुझ पर यकीन जताते हो,
कोई चोर है, तेरे अन्दर बैठा,
जो मुझसे नज़र बचाते हो,
खुद बेनक़ाब होने के डर से,
मुझको नक़ाब पहनाते हो,
शक के लिबास में लिपटा,
सच्चा-झूठ पूछने आते हो,
असहाय का तुम करते शोषण,
पर हाय,
रोक सकूँ ना, टोक सकूँ ना,
क्यों मेरा कलेज़ा जलाते हो ।।
ना मैं बधिर, न मूक हूँ,
दृष्टा हर पल अचूक हूँ,
ख़ुशी हो या हो संताप,
जुदाई हो या हो मिलाप,
हास्य हो या हो विलाप,
पुण्य हो या महापाप,
वरदान हो या हो अभिशाप,
मुझसे गर पूछेंगे आप,
धर्म-अधर्म के समर में,
कुरुक्षेत्र के संजय सा रहता हूँ,
मैं तो आँखों देखी कहता हूँ,
मैं तो आँखों देखी कहता हूँ ।।
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हर गली-मोड़ पर असहाय पर सतर्क नज़र का प्रहरी
CCTV हमारे दैनिक जीवन का एक अभिन्न हिस्सा बन चुका है।
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लेखनी:
अजय चहल 'मुसाफ़िर'
एवम्
श्रीशैलन
भारत
Picture courtesy: Paulo Zerbato |
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