दो किरदारों की है, ये कहानी,
एक है तिरंगा और एक है जवानी।
पूछे तिरंगा जवानी से,
है क्यूँ तू मेरी दीवानी ?
बोली जवानी,
शौक तुझे है, शिखरों पे लहरने का,
और महफूज़ है तू, उन शिखरों पे,
क्योंकि मेरी फ़ितरत में, है बलिदानी !!
पूछे तिरंगा, जवानी से,
क्यूँ बिछड़ कर दुनियादारी से,
बँधी हो मोहब्बत हमारी से ?
बोली जवानी, सुनो ऐ रंगीले,
लहराते हो जब तुम, हवाओं में,
जूनून फैलाते हो ऐसा, फ़िज़ाओं में,
सब मस्तक नम हो जाते हैं,
और हम बस तुझ में खो जाते हैं !!
हैरान तिरंगा, कहे जवानी से,
क्यों इतनी मेरी, है परवाह तुझे ?
जब सारा जग सो जाता है,
जाने क्यूँ?, चैन तेरा खो जाता है,
रात-दिन देखा है तुझे,
इर्द-गिर्द कंटीली तारों के,
तेरे अपने, तेरे सपने,
क्यूँ लगते हैं, पार सितारों के?
हँस दी जवानी और बोली,
ऐ मेरे भोले हमदम,
पहनी थी जिस दिन मैंने, ये वर्दी,
मालूम थी मुझे,
जैसलमेर की गर्मी और सियाचिन की सर्दी,
और हाँ,
तू अपनों की कहता है, मेरे सपनों की कहता है,
तो सुनो ऐ तिरंगे,
माना, मेरी वो नन्ही गुड़िया,
मेरे पास नहीं है,
साँसें तोड़ती माँ से भी,
मिलने की, आस नहीं है,
मेरे खाली और भरे पेट में,
अंतर, कुछ ख़ास नहीं है !
गम नहीं, मेरे अपने मुझे जैसे भी आंक लें,
पर मज़ाल नहीं, इस ओर से, या उस ओर से,
कोई बुरी नज़र से तुझे झाँक ले !!
कसम है मुझको, ना देंगे झुकने तुझको,
जब तक बदन में होश है,
साँसे रुकें तो परवाह नहीं, क्योंकि,
आख़िर में मेरे महबूब, तेरा आग़ोश है !!
दो किरदारों की है, ये कहानी,
एक है तिरंगा और एक है जवानी।।
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("जवानी" ~ "फौजी ")
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Click here to watch the video on Youtube
-------
लेखनी:
अजय चहल 'मुसाफ़िर',
चेन्नई, भारत
----------
(Recited at IIT Madras on the occasion of Martyrs' Day 2017)
एक है तिरंगा और एक है जवानी।
पूछे तिरंगा जवानी से,
है क्यूँ तू मेरी दीवानी ?
बोली जवानी,
शौक तुझे है, शिखरों पे लहरने का,
और महफूज़ है तू, उन शिखरों पे,
क्योंकि मेरी फ़ितरत में, है बलिदानी !!
पूछे तिरंगा, जवानी से,
क्यूँ बिछड़ कर दुनियादारी से,
बँधी हो मोहब्बत हमारी से ?
बोली जवानी, सुनो ऐ रंगीले,
लहराते हो जब तुम, हवाओं में,
जूनून फैलाते हो ऐसा, फ़िज़ाओं में,
सब मस्तक नम हो जाते हैं,
और हम बस तुझ में खो जाते हैं !!
हैरान तिरंगा, कहे जवानी से,
क्यों इतनी मेरी, है परवाह तुझे ?
जब सारा जग सो जाता है,
जाने क्यूँ?, चैन तेरा खो जाता है,
रात-दिन देखा है तुझे,
इर्द-गिर्द कंटीली तारों के,
तेरे अपने, तेरे सपने,
क्यूँ लगते हैं, पार सितारों के?
हँस दी जवानी और बोली,
ऐ मेरे भोले हमदम,
पहनी थी जिस दिन मैंने, ये वर्दी,
मालूम थी मुझे,
जैसलमेर की गर्मी और सियाचिन की सर्दी,
और हाँ,
तू अपनों की कहता है, मेरे सपनों की कहता है,
तो सुनो ऐ तिरंगे,
माना, मेरी वो नन्ही गुड़िया,
मेरे पास नहीं है,
साँसें तोड़ती माँ से भी,
मिलने की, आस नहीं है,
मेरे खाली और भरे पेट में,
अंतर, कुछ ख़ास नहीं है !
गम नहीं, मेरे अपने मुझे जैसे भी आंक लें,
पर मज़ाल नहीं, इस ओर से, या उस ओर से,
कोई बुरी नज़र से तुझे झाँक ले !!
कसम है मुझको, ना देंगे झुकने तुझको,
जब तक बदन में होश है,
साँसे रुकें तो परवाह नहीं, क्योंकि,
आख़िर में मेरे महबूब, तेरा आग़ोश है !!
दो किरदारों की है, ये कहानी,
एक है तिरंगा और एक है जवानी।।
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("जवानी" ~ "फौजी ")
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लेखनी:
अजय चहल 'मुसाफ़िर',
चेन्नई, भारत
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(Recited at IIT Madras on the occasion of Martyrs' Day 2017)
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