बात बचपन की हो या
बात पचपन की हो;
सब किस्से वही पुराने हैं,
तेरे हिस्से बस तराने हैं ||
बहुत होड़ थी उस दौर में, दोस्त नए बनाने की,
अब आदत घर कर गयी है, रिश्ते सब भुलाने की |
बड़ा शौंक था, हमें चौंक का,
जहाँ रोज़ नयी बहार थी |
कंचे थे, गुल्ली थी, घरोंदे थे,
और धूल फांकती सांसों की कतार थी |
पर जब गुजरा आज उधर से मैं,
बस सन्नाटे की भरमार थी |
क्योंकि चले गए वो सब, अपनी भूखें मिटाने को,
सिर्फ़ उदरों का सवाल न था, तमन्नाएँ थी महल बसाने की |
मुझ संग बड़े हो गए थे, मेरे खिलौने भी,
मिट्टी वाली ईंटें अब, बन रही थी सोने की,
अनजान थे, पर अब दीर्घ आयु हैं,
मेरे हर्ज़ और फ़र्ज,
होंसले और मर्ज़,
हिस्से और क़र्ज़ |
पहले नींद थी और अब घुटने,
बिस्तर न छोड़ने के ख़ूब बहाने हैं,
बात बचपन की हो, या पचपन की,
सब किस्से वही पुराने हैं,
मेरे हिस्से बस तराने है ||
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लेखनी - अजय चहल 'मुसाफ़िर'
चेन्नई, भारत--------
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