उसे जी भर के देखूँ, तो जी ना भरे ;
बेचैन दिल ये, जाने क्या क्या करे I I
वो जुल्फें ज्यों ज्यों सुलझती गयी ,
उम्मीदें मेरी उलझती गयी I
हरियाली में यूँ थी, वो बदन को लपेटे ;
मुट्ठी में ज्यों थे, हम साँसें समेटे I
इक हाथ कंगन, इक हाथ खाली;
यूँ वो कातिल अदा, मुस्कुराने वालीI
चुप शर्मीली आँखों व बोलते झुमकों का वादा ;
मुलाकात वो छोटी, पर यादें थी ज्यादा I I
उसे जी भर के देखूँ, तो जी ना भरे ;
बेचैन दिल ये, जाने क्या क्या करे I I
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लेखनी - अजय चहल 'मुसाफ़िर'
चेन्नई, भारत
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