रविवार, 21 नवंबर 2004

ख्वाब


हर रोज़ एक नया ख्वाब देखता हूँ,
हर ख्वाब में खुद को तेरे साथ देखता हूँ I I

दिन में सैकड़ों चेहरे सामने आते हैं ,
कसम से सभी चेहरे मुझे बहुत भाते हैं ;
क्योंकि -
शायद हर चेहरे में , तुम्हारा ये चेहरा साफ़ देखता हूँ I

हर रोज़ एक नया ख्वाब देखता हूँ,
हर ख्वाब में खुद को तेरे साथ देखता हूँ I I

तुम्हारी ये गोल-गोल नशीली आँखें ,
और पल-पल झुकती पलकें ;
बयां करना तुम्हारा सब कुछ ,
यूँ मुस्कुरा के हलके ;
करीब आती मेरी तबाही ,
इन अदाओं में साफ़ देखता हूँ I

हर रोज़ एक नया ख्वाब देखता हूँ,
हर ख्वाब में खुद को तेरे साथ देखता हूँ I I


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 इसे उर्दू में यहाँ पढ़ें:
https://musaafiraana.blogspot.in/2017/08/khawaab.html
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लेखनी:
अजय चहल 


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