शनिवार, 17 सितंबर 2016

सूरज

देखो सूरज है आ रहा, अँधियारा है अब जा रहा,
देखो सूरज है आ रहा ।।
जब यहाँ प्रकाश ना था, कौन हृदय निराश ना था,
काले बादल घनघोर थे, भगदड़ मचाए सब चोर थे ।।
उन नकाबी इरादों पे, पानी-सा अब फिर गया है,
उम्मीदों का आंगन जो, रौशनी से घिर गया है ।।
उस अँधेरे दौर में, अपनों का बस आभास था,
हर आस्तीन का सांप, बन बैठा तब ख़ास था,
रोग बहुत से पाल बैठे, इलाज़ बस प्रकाश था ।।
ख़ुशी का अब जोर है, चमक जो हर और है,
जगमग के सैलाब में, कण कण है नहा रहा,
देखो सूरज है आ रहा, अँधियारा है अब जा रहा,
देखो सूरज है आ रहा ।।
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लेखनी: अजय चहल 'मुसाफ़िर'
17 सितम्बर 2016
समुन्द्र-तल से 20,000 मीटर ऊपर, दिल्ली, भारत

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