'शक़' है, वो शब्द, रे मुसाफ़िर !
जिसने कितने ही दिल हैं तोड़े,
जिसने कितने ही दिल हैं तोड़े,
जाने किस के रिश्ते, किस से जोड़े,
गगनभेदी बाज़ों के पंख मरोड़े,
कितने ही परिवारों के हैं, पेड़ सुखाये ।
खींच लकीरें कागज़ पर, दो देश बनाये ।।
गगनभेदी बाज़ों के पंख मरोड़े,
कितने ही परिवारों के हैं, पेड़ सुखाये ।
खींच लकीरें कागज़ पर, दो देश बनाये ।।
जिस दिन आया था, वो शब्द, पास तुम्हारे,
पहले जैसे ना रहे, अहसास हमारे,
बदले बदले लगने लगे थे अब, तुम्हें रंग मेरे,
फ़ना हुए वो सारे पल, बीते जो संग तेरे,
पहले जैसे ना रहे, अहसास हमारे,
बदले बदले लगने लगे थे अब, तुम्हें रंग मेरे,
फ़ना हुए वो सारे पल, बीते जो संग तेरे,
हीरा था मैं, पर बन रहा था पत्थर अब ।
गैरों के इशारों पर, भूल गए तुम कसमें सब ।।
गैरों के इशारों पर, भूल गए तुम कसमें सब ।।
थामा था जब हमने हाथ, गवाह बने थे यार सारे,
दुनिया बनी थी मेरी तुम, हम बने संसार तुम्हारे,
पर जब से उसकी दस्तक हुई,
सहलाने की बारी गई, तेरी मुठ्ठी में आये, बाल हमारे ।
बेगाने तो सब बच गए, अपने थे, आये पेशी पे सारे ।।
दुनिया बनी थी मेरी तुम, हम बने संसार तुम्हारे,
पर जब से उसकी दस्तक हुई,
सहलाने की बारी गई, तेरी मुठ्ठी में आये, बाल हमारे ।
बेगाने तो सब बच गए, अपने थे, आये पेशी पे सारे ।।
जिस आँगन में हर-दम, हमारी धमा-चौकड़ी होती थी,
परिंदों और इंसानों को छका, माँ खाली पेट सोती थी।
मैंने सुना है, किसी रोज़, इक शब्द की यहाँ मार हुई,
ठीक वैसे ही जैसे, अयोध्या में माँ सीता भी तार हुई।
सूखा नीम सबूत है, सच्चे रिश्तों की यहाँ हार हुई ।।
परिंदों और इंसानों को छका, माँ खाली पेट सोती थी।
मैंने सुना है, किसी रोज़, इक शब्द की यहाँ मार हुई,
ठीक वैसे ही जैसे, अयोध्या में माँ सीता भी तार हुई।
सूखा नीम सबूत है, सच्चे रिश्तों की यहाँ हार हुई ।।
उसी शब्द से, मज़हबों में हमारे, थी आयी दरार,
कागज़ पे थी लकीरें, फिर भी लाखों ना कर पाये पार ।
अब पड़ोसी है, पर तंग-दिल है, रोज़ हंगामा करता है,
अजीब मुल्क हैं हम, इंतज़ार में, क्या जमाना करता है ?
जो बुज़दिल न थे, वो उस पार जवाब दे आये थे,
पर शक़ के मरीज़ों की खुराक, वो लाशें वहीं भूल आये थे ।।
कागज़ पे थी लकीरें, फिर भी लाखों ना कर पाये पार ।
अब पड़ोसी है, पर तंग-दिल है, रोज़ हंगामा करता है,
अजीब मुल्क हैं हम, इंतज़ार में, क्या जमाना करता है ?
जो बुज़दिल न थे, वो उस पार जवाब दे आये थे,
पर शक़ के मरीज़ों की खुराक, वो लाशें वहीं भूल आये थे ।।
हर डगर तक थी पहुँच, हर रस्ता आसान था,
सपनों की पगडण्डी पे, रफ़्तार का तूफ़ान था,
मस्त था, सशक्त था, नहीं पता था मुझे हार का,
दबे पांव वो शब्द आया, धीमा असर, उसकी मार का ।
मैं ढेर हुआ, वो शेर हुआ, और फिर ना कभी सवेर हुआ ।।
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ये शब्द, 'शक़', है गुनाहगार।
ये शब्द, 'शक़', है गुनाहगार।
उम्मीदों का, सपनों का, अपनों का ।
प्यार का, यार का, परिवार का ।
बचपन का, मुस्कान का, मकान का ।
मासूम जान का, मान का, सीमा पर जवान का ।
इंसान का, भगवान का, मज़हबी ईमान का,
मेरे देश का, संत के भेष का, गरीब के वेश का ।
है गुनाहगार, ये शब्द, 'शक़' ।।
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'मुसाफ़िर' आभारी है 'श्रीशैलन (விவசாயி)' के 'शाब्दिक-प्याऊ' का !!
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Listen it here:
https://soundcloud.com/ajay-chahal/shaq
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प्यार का, यार का, परिवार का ।
बचपन का, मुस्कान का, मकान का ।
मासूम जान का, मान का, सीमा पर जवान का ।
इंसान का, भगवान का, मज़हबी ईमान का,
मेरे देश का, संत के भेष का, गरीब के वेश का ।
है गुनाहगार, ये शब्द, 'शक़' ।।
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'मुसाफ़िर' आभारी है 'श्रीशैलन (விவசாயி)' के 'शाब्दिक-प्याऊ' का !!
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